गुरुवार, 26 मार्च 2015

नई दुनिया २५ मार्च १५


हरिभूमि २७ मार्च १५


जनवाणी २७ मार्च १५


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नई दुनिया १० मार्च १५


मंगलवार, 24 मार्च 2015

खिड़कियां व नकल


सारे मुल्क ने देखा l कई कई बार देखा l इसलिए देखा क्योंकि देखने में कोई हर्ज़  नहीं था कि दीवारों में खिड़कियाँ होती हैं l सिर्फ होती ही नहीं वरन उसमें रहती हैं l  दीवार के उस पार मूढ़मति नकलची रहते हैं l दीवार के इस पार अक्लमंद नकल प्रोवाइडर रहते हैं l इसके आरपार हमारी शिक्षा प्रणाली और पूरा सिस्टम रहता है l  सिस्टेमेटिक तरीके से  रहता है l  इसमें सबकी अपनी -अपनी भूमिका होती है l समस्त अभिनेता अपने रोल को पूरी लगन और शिद्दत से निबाहते हैंl
खिड़कियों से केवल ताज़ी हवा और रौशनी ही नहीं आती ,इसमें से शानदार नम्बरों  से लदीफदी   मार्क्सशीट और सर्टिफिकेट पाने का शार्टकट निकलता है l खिड़कियों की  मुंडेरों पर कबूतरों की तरह टिक कर नकल करवाने और गुटुरगूं गुटरगूँ करने का हुनर आता है l जांबाजी दिखाने का मौका मिलता है l यह भी पता लगता है कि खिड़कियों की सत्ता केवल कम्प्यूटर की विंडोज तक ही सीमित नहीं है l नैटजनित आभासी संसार से इतर भी खांटी खिड़कियों की उपयोगिता बरक़रार है l खिड़कियाँ कालजयी होती  हैं l
एक वक्त  था जब इन्हीं खिड़कियों की वजह से नैनों की विविध भावभंगिमा की रोशनाई से लिखे अदृश्य प्रेमगीतों का आदानप्रदान हो जाया करता  था l अनेक लोग इन्हीं खिड़कियों के चलते सफल या असफल प्रेमी बने l कालांतर में उनमें से कुछ सफल प्रेमी बन कर बच्चों के पापा हो गए और खिड़कियाँ उनसे दूर होती  गयीं l असफल टाइप के प्रेमी खिड़कियों  से ताउम्र चिपके रह गए और अपने प्रेम की भूली बिसरी दास्तान का पुनर्पाठ करते रहे l  
कम्प्यूटर पर डेरा जमाए विंडोज ने सूचना के आदानप्रदान को नितांत आसान बना दिया है l विद्यालयों की खिड़कियों ने नकल की अहमन्यता कम नहीं होने दी है l  सोशल मीडिया पर नकल की  वायरल हुई फोटो ने नकल के कारोबार की ख्याति को ग्लोबल कर दिया  है l सबको पता लग गया है कि सर्वांगीण विकास नकल और अक्ल के मिक्सचर से होता है l  विंडोज के जरिये खिड़कियों को नया  आयाम और व्यापक पहचान मिली है l सर्वशिक्षा अभियान को गति मिली है l सूबे का नाम रोशन हुआ  है l  शिक्षा के क्षेत्र में अन्य पिछड़े हुए राज्यों के मन में  तरक्की की आस  जगी है l  रुखे सूखे अध्ययन मनन की सनातन परिपाटी में हींग , जीरे और लहसुन का स्वादिष्ट तड़का लगा  है l  
दीवार में खिड़की अरसे से रहती आई है l यह बात आधुनिक हिंदी साहित्य के अधिकांश पाठकों को पहले से  पता  है l जिन्होंने यह बात किसी वजह से नहीं सुनी , उन्हें भी पता लग गया है कि दीवारों में बनी खिड़कियों की महती कृपा से बिना पढे लिखे ही लोग पढ़े लिखे जैसे बन जाते हैं l  इन्हीं खिड़कियों  के जरिये परीक्षा पर्चे में दिए सवालों के जवाब प्रकट होते हैं और उत्तर पुस्तिका पर जाकर खुद –ब –खुद चिपक जाते हैं जैसे फूलों पर तितलियाँ जा विराजती हैं l
कोई दीवार बनावट में चाहे जैसी भी हो लेकिन उसमें नकल करने और करवाने वालों के लिए सदैव एक अदद  सीढ़ी और जिंदा उम्मीद रहती है l शिक्षा नकल की अक्ल में ही बसती और पनपती है l


सोमवार, 23 मार्च 2015

भ्रष्टाचार चलेगा तो बनाना रिपब्लिक बनेगा


कहने वाले  कह गए  हैं कि राजनीति एक गंदी चीज है ,इससे बचो पर तार्किक पूछते  रहे हैं कि कोई इससे बचे तो आखिर  क्यों  सबको यह बात अच्छी तरह मालूम है कि जो गन्दा है वही धंधा है धंधा वही जिसमें मुनाफा  हो धंधे से भी भला कोई आँख चुराता है धंधे से जो बचता है वह कर्महीन कहलाता है सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहींभ्रष्टाचार भी एक धंधा है धंधे का पूरक नहीं समानार्थी अब मौनी बाबा कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार का अधिक प्रचार न करो उसे उसके हाल पर छोड़  दो, कोई निरर्थक नाम न दो जीवन के इस गूढ़ रहस्य को उजागर करने के लिए ही  उन्होंने अपना दिव्य मौन तोड़ा है
आप मानें या न मानें लेकिन सत्य यही है कि भ्रष्टाचार अपने आप में  एक ऐसा सुपर ब्रांड है जो बिना किसी मार्केटिंग की रणनीति व प्रचार के चलता है ऐसा बिरवा है जो बिना किसी खाद पानी हवा के पनपता है इसकी जड़ें धरती में नहीं होती अमरबेल के तरह हर  राजनीतिक व्यवस्था में खूब हरियाता है  इससे प्राप्त वैभव ऐसा कि देखने वाले देखते रह जाएँ अधिक देखादाखी करने वालों की ऑंखें चुंधिया जाएँ भ्रष्टाचार के शलाका पुरुषों की  तूती बिना फूंके स्वत: बजने लगती है ऐसे सुदामाओं की सत्तानशीनों से बाल मित्रता सामाज खुद अविष्कृत कर लेता है
भ्रष्टाचार दैवीय गुणों से संपन्न एक ऐसा अचार है जिसे चखने वाला तो बौराता ही है ,पर जिसे मौका नहीं मिल पाता वह भी  सर धुनता है इसमें कनक- कनक से अधिक मादकता होती है इसके समक्ष सारी दुनियावी आचार सहिंता बेदम हो जाती हैं और पारंपरिक जीवन मूल्यों के भावार्थ बदल जाते हैं भ्रष्टाचार अब एक सहज स्वीकार्य संज्ञा है, क्रिया और विशेषण भी इसका स्वरुप वातावरण में घुली नाईट्रोजन जैसा है जिसका होना आदमी के जिन्दा रहने के लिए आक्सीजन की ही तरह अपरिहार्य है इसके महत्व को मनीषियों ने  समझ तो युगों पहले लिया  था पर लोकलाज से इसे सामाजिक स्वीकार्य नहीं मिल पाया  ।लोग मन ही मन इसके प्रति  आकर्षित होते रहे पर किसी नदीदे की तरह मुड़िया हिलाते रहे
प्राचीन इतिहास के पन्नों में राजे -रजवाड़ों ,सामंतों ,भांडों ,दरबारियों और  निष्णात ऐय्यारों के भ्रष्टाचार की तमाम ऐसी गौरव गाथायें मौजूद हैं ,जिनका गान आज भी पूर्ण धार्मिक विधि विधान से होता है यह अलग बात है कि इन गाथाओं को भ्रष्टाचार के दस्तावेज़ के रूप में चिन्हित करने हम  डरते  हैं ऐतिहासिक साक्ष्य चाहे जितने निर्दोष हों पर   उनकी मनचाही  व्याख्याएं गढ़ ही ली जाती  हैं  
हमारे मौनी बाबा का  कुछ भी बोलना हमेशा एक बड़ी बात होती है उनका कहना है कि भ्रष्टाचार को लेकर लोग व्यर्थ की चिल्लपों न मचाएं वह मितभाषी हैं उनके थोड़े कहे को ही पर्याप्त समझा जाये भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार ही रहने दें ,बेकार का वितंडा न खड़ा करें इसका अतिशय प्रचार सारी दुनिया में हमारी छवि को धूमिल करता है भ्रष्टाचार वेश्यावृत्ति की तरह दुनिया का प्राचीनतम धंधा है और धंधा चाहे कितना भी गन्दा क्यों न हो ,वह यदि मुनाफे का है तो चलते रहना चाहिए देश की विकासदर के निरंतर  गिरते  ग्राफ को थामने के लिए इसका चलना व्यापक राष्ट्रहित और राजनेताओं के व्यापक हित में है भ्रष्टाचार चलेगा तभी तो देश सही अर्थों में  बनाना रिपब्लिकबनेगा  

लगभग यू जैसा यू टर्न


यूटर्न को लेकर आजकल राजनीतिक पटल पर गहन विमर्श चल रहा है  । चिंतक नाराज हैं कि लोग इतना अधिक यूटर्न  ले रहे हैं ।  यह बात कमोबेश सच भी है हम यूटर्न समय से होकर गुजर रहे हैं  । लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं जिसे पर इतनी अधिक माथापच्ची की जाये  । यूटर्न आज की  सच्चाई है । लुटियन की नई दिल्ली के अलावा भी एक भरीपूरी दिल्ली और पूरा मुल्क है जिसके  कच्चे पक्के रास्ते  इस कदर पेचीदा हैं कि यदि इस पर यूटर्न न लिये  जायें  तो वे आपको धराशाही करके अपने वक्त से बाहर कर देने में जरा भी विलम्ब नहीं करते  ।
सब जानते हैं कि जो यूटर्न ले पाने में समय रहते असफल रहते हैं  वे  अपने अहंकार से लदे -फदे   इतिहास की कंदराओं में चले  जाते हैं या समय के  डस्टबिन में फेंक  दिए जाते हैं  । जिन्हें  वर्तमान में लौटना होता है उन्हें  एक न एक दिन  यूटर्न लेना ही होता है  । वैसे भी  सीधी सपाट रास्ते  आमतौर से गंतव्यों तक पहुँचने में नकामयाब ही रहते हैं  ।
यूटर्न लेना एक श्रमसाध्य कला है ।राजनीति में खुद को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए इसे साधना अपरिहार्य है ।जिसे यूटर्न लेना नहीं आता वह राजधानी के सघन ट्रेफिक में  सुबह से शाम तक सिर्फ दिल्ली दर्शन करता रह जाता है पर वहां नहीं पहुँच पाता जहाँ उसे जाना होता है । दिल्ली में तो बच्चे भी पैदा होने के बाद ककहरा सीखने से पहले यूटर्न लेना सीखते हैं । बिना यूटर्न के जीवन गतिहीन हो जाता है ।
रोजमर्रा की जिंदगी में आदमी चाहे अनचाहे बार बार यूटर्न लेता है ।घर में आदमी नाहक ही पत्नी पर लाल पीला होता है और जब पत्नी आग़ बबूला होती  है तो वह तुरंत यूटर्न लेकर एकदम सर्द सफ़ेद हो जाता है ।दफ्तर में बॉस के चैम्बर अधीनस्थ सीना तान कर घुसता है और बॉस की डाट फटकार के बाद अपनी कमर को यूटर्न देकर झुकी हुई कमान के साथ बाहर आता है ।गली के नुक्कड़ पर खड़े शोहदे से  या जिससे कर्ज़ लेकर लौटाया न हो उस महाजन के कोपभाजन से बचना हो या बरसात में जल प्लावित रास्ते का विकल्प खोजना हो या बिना हेलमेट पहने वाहन चलाते हुए ट्रेफिक के सिपाही के चालान से बचना हो  या फिर सदाशयता प्रदर्शन की  कूटनीतिक वजह अथवा तकादा हो ,हर बार बार - बार यूटर्न लेना ही होता है ।
यूटर्न ले लेकर ही आदमी सही रास्ते को पाता आया है ।कोलंबस यूटर्न लेकर ही हिंदुस्तान को खोज पाया था ।जो  यूटर्न लेना नहीं सीखते वे अपनी मंजिल तलाशते हुए गुमनाम मुसाफिर  बने रह जाते हैं । वे कभी वास्कोडिगामा नहीं बन पाते ।कागज पर  बने नक्शे हों या क़ुतुबनुमा या नाविकों के दिशानिर्देशक यंत्र  या फिर जीपीएस प्रणाली ,तभी कारगर होते हैं जब यूटर्न का सम्यक इस्तेमाल किया जाता है ।यूटर्न लेने से बचने वाले अड़ियल घोड़े सवार को कभी विजयश्री नहीं दिला पाते । मानव इतिहास की अधिकांश गौरव गाथाएं वस्तुतः यूटर्न का  कीर्तिगान ही हैं । समस्त विश्व का कालजयी साहित्य इसी यूटर्न के शिल्प से गढा जाता रहा है । राजनीति में तो इसके जरिये ही सरकार का मानवीय चेहरा जनता के सामने उजागर होता है । उसकी ड्रेकुला वाली छवि परम सौम्य सेंटा क्लाज़ में यूटर्न के कारण ही तब्दील होती  आई  है । सरकार किसी चीज की कीमत 20 प्रतिशत बढाती है ,होहल्ला मचने पर  यूटर्न लेती है और 4.5 प्रतिशत घटा देती है ,तब उसकी जयजयकार होने लगती है ।नेता तभी कद्दावर बनता है जब वह यूटर्न लेने में पारंगत  हो जाता है ।लोकतंत्र में तो सरकारें यूटर्न के जरिये ही बनती ,संवरती और स्थाईत्व को प्राप्त होती हैं ।यूटर्न तो  सभी लेना चाहते  हैं लेकिन इसकी महत्ता को  सही मायने में वही जान पाते हैं जो उचित मोड़ पर मुड़ने से  चूक कर आगे बढ़ते चले जाते हैं ।
ध्यान रहे राजनीति में यू टर्न लेते हुए उसकी आकृति शास्त्रीय ढंग से बने  रोमन लिपि वाले यू की  नहीं होती , लगभग यू जैसी  होती  है ।